Published On Sep 4, 2024
प्रार्थना का प्रयोजन ही प्रभु तक पहुँचने में नहीं है। प्रार्थना तुम्हारे हृदय का भाव है। फूल खिले, सुगंध किसी के नासापुटों तक पहुँचती है, यह बात प्रयोजन की नहीं है। पहुँचे तो ठीक, न पहुँचे तो ठीक। फूल को इससे भेद नहीं पड़ता।
प्रार्थना तुम्हारी फूल की गंध की तरह होनी चाहिए। तुमने निवेदन कर दिया, तुम्हारा आनंद निवेदन करने में ही होना चाहिए।
इससे ज्यादा का मतलब है कि कुछ माँग छिपी है भीतर। तुम कुछ माँग रहे हो। इसलिए पहुँचती है कि नहीं? पहुँचे तो ही माँग पूरी होगी। पहुँचे ही न तो क्या सार है सिर मारने से!
और प्रार्थना प्रार्थना ही नहीं है जब उसमें कुछ माँग हो। जब तुमने माँगा, प्रार्थना को मार डाला, गला घोंट दिया। प्रार्थना तो प्रार्थना ही तभी है जब उसमें कोई वासना नहीं है। वासना से मुक्त होने के कारण ही प्रार्थना है। वही तो उसकी पावनता है।
तुमने अगर प्रार्थना में कुछ भी वासना रखी–कुछ भी–परमात्मा को पाने की ही सही, उतनी भी वासना रखी, तो तुम्हारा अहंकार बोल रहा है। और अहंकार की बोली प्रार्थना नहीं है। अहंकार तो बोले ही नहीं, निरअहंकार डाँवाडोल हो।
प्रार्थना आनंद है।
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